हजारी प्रसाद द्विवेदी की लेखनी में परंपरा और आधुनिकता का जैसा मेल दिखाई देता है, वैसा कम ही देखने को मिलता है. लोक और शास्त्र का मूल्यांकन जिस इतिहास बोध से द्विवेदी जी ने किया है, वह इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि उसमें किसी तरह का महिमामण्डन या भाव विह्वल गौरव-गान नहीं मिलता, बल्कि वैज्ञानिक चेतनासंपन्न ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि मिलती है, जिसका पहला और आख़िरी लक्ष्य मनुष्य है. उनका यह निबंध इसी बात की ताईद करता है. [….]