कल शाम एक महफिल में शरीक होने का मौक़ा मिला. वहीं एक गाना पहली बार सुनने को मिला, ‘…और जिसको डांस नहीं करना/ वो जाके अपनी भैंस चराए.’ झमाझम संगीत के बीच ये बोल समझने में भी काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी. समझ न पाया कि यह गाना है कि धमकी! [….]
हर पीढ़ी के पास अपने दौर के ज़ाइक़ों की ख़ास स्मृति होती है और विशिष्टता का यह बोध हमेशा साथ रहता है. ये स्मृतियां उस दौर की हैं, जब ‘ग्लोबल विलेज’ के बारे में दूर-दूर तक किसी को ख़बर नहीं थी. गांवों की चौहद्दी होती थी और दूसरा शहर परदेस समझा जाता था. ज़िंदगी में आज की तरह की हड़बड़ी भी दाख़िल नहीं हुई थी. यह उन्हीं दिनों की बात है. [….]
बरेली की लिटरेरी सोसाइटी के उस जलसे में फ़िराक़ गोरखपुर शरीक हुए थे. उन्होंने अपना क़लाम पेश किया, उसके पहले वसीम बरेलवी की ग़ज़लों के संग्रह ‘आंसू मेरे दामन तेरा’ का विमोचन किया. इसकी ऑटोग्राफ़ की हुई प्रति की नीलामी हुई और रक़म जवानों की भलाई के कोष में दी गई. ख़ासतौर पर बुलाए गए महेंद्र कपूर ने वसीम बरेलवी की दो ग़ज़लें भी गाईं. [….]