हमारे पर्व, त्योहार परम्परा सिर्फ़ मनोरंजन, सामजिकता, इतिहास की स्मृति ही नहीं हैं, सदियों से हमारे शिल्प, गीत, नृत्य, चित्रकला को सजाने-संवारने और पीढ़ी दर पीढ़ी उनको आगे ले जाने का माध्यम भी रहे हैं. [….]
‘जो मिले’ दामोदर दत्त दीक्षित के संस्मरणों की किताब है. इस किताब में उन बीस शख़्सियतों के संस्मरण हैं, लेखक ने जिन्हें क़रीब से जाना, उनकी विशिष्टताओं को महसूस किया और जिनसे उनका गहरा आत्मीय नाता रहा है. ख़ुमार बाराबंकवी पर उनके संस्मरण का एक अंश हम यहाँ छाप रहे हैं. [….]
‘अमी जतो दूर जाई, आमार संगे जाए एकटा नदीर नाम’, किसी कवि की यह कल्पना तब जैसे साकार होती हुई लगी, जब प्रयागराज के पिछले कुंभ में संस्कार भारती के गंगा मनुहार कार्यक्रम की संकल्पना के बारे में जाना. हमारे लोक जीवन में भी कहा गया है, ‘कोस-कोस पर बदले पानी, पाँच कोस पर बदले बानी’. [….]
कभी-कभी खेल के मैदान पर कुछ ऐसे दृश्य भी बन जाते हैं जो अपनी अंतर्वस्तु में इतने असरदार होते हैं कि खेल-प्रेमियों के दिलोदिमाग़ पर हमेशा के लिए दर्ज हो जाते हैं, अविस्मरणीय बन जाते हैं. 13 जुलाई 2002 को दुनिया ने लॉर्ड्स के मैदान पर भी ऐसा ही नज़ारा देखा था. [….]
एक सीधी सड़क है. पूर्वी घाट की पहाड़ियों से गुजरती और ब्रह्मपुर से पारलाखेमुंडी को जोड़ती. 180 किलोमीटर और 180 अंश का कोण बनाती हुई. गांव में भोर जल्दी होती है, लोग खेती-किसानी के लिए निकल पड़ते हैं. इसलिए जब सुबह चार बजे पारलाखेमुंडी से बस चलती है तो सड़क के किनारे के सारे गांव जाग जाते हैं, [….]
यात्रा, सिर्फ़ वह नहीं होती बंधु जो एक शहर से दूसरे शहर की जाती है. यात्रा वह भी है, जब हम यात्रा से लौट कर, [….]
कल शाम एक महफिल में शरीक होने का मौक़ा मिला. वहीं एक गाना पहली बार सुनने को मिला, ‘…और जिसको डांस नहीं करना/ वो जाके अपनी भैंस चराए.’ झमाझम संगीत के बीच ये बोल समझने में भी काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी. समझ न पाया कि यह गाना है कि धमकी! [….]
भारतवर्ष त्योहारों का देश है, बचपन से हिंदी की परीक्षा की तैयारी के दौरान किसी भी त्योहार पर निबंध लिखाते समय यह पंक्ति गुरूजी स्थायी रूप से बताते थे. होली, दिवाली, दशहरा, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी सभी के साथ यह एक वाक्य स्थायी रूप से जोड़ा जाता था. [….]
शहरों पर लिखना, साहित्य में अब एक अलग विधा के तौर पर विकसित हो रहा है. हालांकि, तक़रीबन सभी दौर में अलग-अलग शहरों पर लिखा गया है. अच्छी बात है कि यह सिलसिला आगे बढ़ रहा है. संस्कृतिकर्मी दिनेश चौधरी की हाल में आई किताब ‘शहरनामा जबलपुर’ इसी सिलसिले की एक कड़ी है. [….]
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना [….]