(यह संस्मरण है भी और नहीं भी. दरअसल यह मंटो पर लिखे उपेंद्रनाथ अश्क के ख़ासे लंबे संस्मरण की किताब की लंबी भूमिका का एक हिस्सा है. इसके समर्पण में अश्क ने लिखा – उन ‘बुद्धिमानों’ के नाम जिन्होंने इस संस्मरण को मंटो के ख़िलाफ़ समझा. [….]
पारसी थिएटर के उस दौर में जब आग़ा हश्र कश्मीरी के नाटकों की धूम हुआ करती थी, उनकी ज़िंदगी और शान-ओ-शौक़त के क़िस्सों में भी लोगों की दिलचस्पी कम न थी. बक़ौल फ़िदा हुसैन नरसी ‘सीता वनवास’ लिखाने के लिए उनको पचास हज़ार रुपये फ़ीस मिली – तीस हज़ार नक़द और बीस हज़ार का शराब-ख़र्च. हक़ीक़त और फ़सानों के बीच जिये आग़ा हश्र पर ‘उर्दू के बेहतरीन संस्मरण’ में संकलित सआदत हसन मंटो के लिखे का एक हिस्सा, [….]
थिएटर की दुनिया के उस्ताद बंसी कौल से मुलाक़ात के कितने ही प्रसंग पिछले दिनों याद आते रहे. उनके हुनर का सम्मोहन दुनिया जानती है, क़रीब से जानने वाले उनकी शख़्सियत की तमाम ख़ूबियों से भी वाक़िफ़ होंगे. दिल्ली में हमारी मुलाक़ात और उनका यह जुमला कभी नहीं भूलता – रंग विदूषक की भाषा में कहें तो सत्ते पे सत्ता की दुनिया में कभी तीर-तुक्का भी लग जाता है. [….]