मृच्छकटिकम् के हिंदी अनुवाद का नाम नीलाभ ‘तख़्तापलट दो’ रखना चाहते थे. हमने नाम बदलने का आग्रह किया तो लेखकीय अस्मिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर वह अड़ गए. अंकुर जी ने सुझाया कि हम बाबा से बात कर लें. [….]
विज्ञान और विज्ञान पढ़ाने वालों को नीरस मानते हुए अक्सर कला-संस्कृति की दुनिया से अलग ही समझा जाता है. शिक्षण संस्थानों में यह भेद और साफ़ नज़र आता है, मगर इन दोनों दुनिया के बीच सामंजस्य की एक पहल ने न सिर्फ़ बंटवारे की रेखा धुंधली कर दी बल्कि विज्ञान पढ़ाने वालों की सांस्कृतिक प्रतिभा को देखने-समझने का मौक़ा भी दिया. [….]
इब्राहिम अल-क़ाज़ी भारतीय रंगमंच में उस किंवदंती की तरह है जो हमारी पीढ़ी तक दंतकथाओं के रास्ते पहुंचे हैं. ठीक वैसे ही जैसे भारतीय मिथकों और महाकाव्यों का पारायण किए बिना हम उनका अधिकांश जानते हैं या जानने का दावा करते हैं. इसी तरह हमारी पीढ़ी के लोगों तक अल-क़ाज़ी साहब अनेक स्रोतों से पहुंचे थे. [….]