ज़माने में बहुतेरे लोग ऐसे हैं, जिनके लिए ‘उमराव जान’ या ‘गमन’ की ग़ज़लें ही शह्रयार की पहचान हैं. यों ख़ुद शह्रयार अपनी इस पहचान पर ख़ुश लेते थे मगर अदब, इतिहास, इंसान और अपने दौर के मसाइल पर उनकी निगाह बराबर रहती. [….]
[डॉ.गोपीचंद नारंग के लंबे साक्षात्कार के इस आख़िरी हिस्से में उनके विचारों-मान्यताओं के साथ ही व्यक्तिगत ज़िंदगी की ऐसी झलकियाँ भी हैं, जिन्होंने उनकी शख़्सियत गढ़ने में मदद की. माँ-पिता को याद करने के साथ ही मौलवी मुरीद हुसैन को जिस ऐहतराम से वह याद करते हैं, वह उनके इन्सानी किरदार की परछाई है. इस इंटरव्यू के पहले हिस्से का लिंक नीचे दिया गया है. – संपादक] [….]
मैं चुप रहा आता तो वे न जाने कब तक सुनाते जाते. यूँ सृजन के सुख में आकंठ डूबे एक रचनाकार की मुद्रा-भंगिमाएँ देखने का आनंद भी तो कम ख़ास नहीं होता पर…. तब मैं काज़ी साहब के लेखन में उपमाओं, रूपकों, कल्पनाओं और अतिश्योक्तियों के प्रयोगों को लेकर उठाए गए कुछ सवालों और आपत्तियों के बारे में सोच रहा था. [….]