यादें हैं कि दूब की तरह बार-बार उग आती है. गुनगुनी धूप हो, बसंती बयार या कोई और मौसम – यादें तन-मन भिगोकर हर बार ऊर्जा से भर देती है. एक याद है, अम्मा बचपन में कहती थीं, कभी-कभी पालक भी खा लिया करो. सोया, मेथी, चौलाई भी सब्ज़ी ही है. [….]
हर पीढ़ी के पास अपने दौर के ज़ाइक़ों की ख़ास स्मृति होती है और विशिष्टता का यह बोध हमेशा साथ रहता है. ये स्मृतियां उस दौर की हैं, जब ‘ग्लोबल विलेज’ के बारे में दूर-दूर तक किसी को ख़बर नहीं थी. गांवों की चौहद्दी होती थी और दूसरा शहर परदेस समझा जाता था. ज़िंदगी में आज की तरह की हड़बड़ी भी दाख़िल नहीं हुई थी. यह उन्हीं दिनों की बात है. [….]
बरेली की लिटरेरी सोसाइटी के उस जलसे में फ़िराक़ गोरखपुर शरीक हुए थे. उन्होंने अपना क़लाम पेश किया, उसके पहले वसीम बरेलवी की ग़ज़लों के संग्रह ‘आंसू मेरे दामन तेरा’ का विमोचन किया. इसकी ऑटोग्राफ़ की हुई प्रति की नीलामी हुई और रक़म जवानों की भलाई के कोष में दी गई. ख़ासतौर पर बुलाए गए महेंद्र कपूर ने वसीम बरेलवी की दो ग़ज़लें भी गाईं. [….]
पारसी थिएटर के उस दौर में जब आग़ा हश्र कश्मीरी के नाटकों की धूम हुआ करती थी, उनकी ज़िंदगी और शान-ओ-शौक़त के क़िस्सों में भी लोगों की दिलचस्पी कम न थी. बक़ौल फ़िदा हुसैन नरसी ‘सीता वनवास’ लिखाने के लिए उनको पचास हज़ार रुपये फ़ीस मिली – तीस हज़ार नक़द और बीस हज़ार का शराब-ख़र्च. हक़ीक़त और फ़सानों के बीच जिये आग़ा हश्र पर ‘उर्दू के बेहतरीन संस्मरण’ में संकलित सआदत हसन मंटो के लिखे का एक हिस्सा, [….]