हिंदुस्तानी शाहकार फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ पूरी होने में नौ साल लगे थे और ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ पूरी होने में पंद्रह साल. फ़िल्म हो या यह किताब – दोनों के बनने में हद दर्जे की दीवानगी और जुनून की दरकार होती है. [….]
राही मासूम रज़ा के अदबी सफ़र का आगाज़ शायरी से हुआ. 1945 में वह प्रगतिशील लेखक संघ से वाबस्ता हुए. सन् 1966 आते-आते उनकी ग़ज़लों-नज़्मों के सात संग्रह आ चुके थे. यही नहीं, सन् सत्तावन की एक सदी पूरी होने पर 1957 में लिखा हुआ उनका एपिक ‘अठारह सौ सत्तावन’ उर्दू और हिन्दी दोनों ही ज़बानों में ख़ूब मक़बूल हुआ. [….]
मेहनतकशों के चहेते, इंकलाबी शायर मख़दूम मुहिउद्दीन का शुमार उन शख़्सियत में होता है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अवाम की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी. सुर्ख़ परचम के तले उन्होंने आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की और आज़ादी के बाद भी उनका संघर्ष असेंबली और उसके बाहर लोकतांत्रिक लड़ाइयों से लगातार जुड़ा रहा. [….]