प्रयागराज। शहर की रंग-संस्था ‘बैकस्टेज’ के कलाकारों ने मंगलवार को स्वराज विद्यापीठ में ‘पक्षी और दीमक’ का मंचन किया. प्रवीण शेखर निर्देशित इस नाटक का सार ज़्यादा सुख बटोरने के लालच में अपना सब कुछ गंवा बैठने वाले बुद्धिजीवी और उनका आलस्य है. [….]
राधेश्याम कथावाचक पर हरिशंकर शर्मा के आलेखों की नई किताब ‘जीवन की नींव’ का अंश. इस आलेख का अगला हिस्सा कल पढ़ें. ‘जीवन की नींव’ का विमोचन एक अप्रैल को बरेली में होगा.
भारत में कथावाचन की एक समृद्ध परम्परा रही है. महर्षि वेदव्यास इस परम्परा के आदर्श हैं. उन्होंने तीर्थ क्षेत्र नेमिशारण्य (नीमसार) में समस्त ऋषियों के संरक्षण में ‘सूत-पुत्रों’ को पुराण पढ़ने-पढ़ाने तथा उनका भाष्य करने का कार्य प्रारंभ कराया. [….]
जबलपुर | आज़ादी के अमृत महोत्सव के तहत ‘फ़ेस्टिवल ऑफ़ इंडिया’ विषय पर केंद्रित चित्रांजलि राष्ट्रीय फ़ोटोग्राफ़ी प्रतियोगिता में राष्ट्रीय पर्व विशेष पुरस्कार विवेक निगम को मिला है. विवेक दिल्ली में अमर उजाला के वरिष्ठ फ़ोटोग्राफ़र हैं. प्रतियोगिता का आयोजन केंद्रीय सांस्कृतिक मंत्रालय, दक्षिण-मध्य सांस्कृतिक केंद्र और मध्यप्रदेश सरकार की ओर से किया गया. [….]
कथक गुरु बिरजू महाराज से प्रवीण शेखर की यह बातचीत 17 मई, 1995 को अमर उजाला के इलाहाबाद संस्करण में छपी. इसे पढ़कर संस्कृति के प्रति उनके सरोकार और नज़रिये की झलक तो मिलती ही है, यह भी मालूम होता है कि टेलीविज़न के ज़रिये फैल रही अपसंस्कृति के बारे में तो वह फ़िक्रमंद थे ही, संगीत सभाओं में ताली भर पीटने वाले श्रोताओं पर भी उनकी निगाह लगी हुई थी. [….]
वामिक जौनपुरी के ख़्वाब के तजुर्बे बहुत दिलचस्प भी हुआ करते. उन्होंने कई ऐसे ख़्वाबों के बारे में लिखा है जो हर रोज़ रात को वहाँ से शुरू होते, जहाँ सुबह आँख खुलने पर छूट गए थे. उनकी मशहूर नज़्म ‘भूका बंगाल’ के नज़्म होने के पहले कलकत्ते के होटल में भी उन्होंने ख़्वाब देखा था – एक ख़ौफ़नाक ख़्वाब. [….]
प्रयागराज | ममता कालिया की किताब ‘जीते जी इलाहाबाद’ का लोकार्पण सोमवार को साहित्यिक-सांस्कृतिक बिरादरी बीच हुआ. संस्मरण के रूप में लिखी इस किताब में इलाहाबाद की आधी सदी का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश, इतिहास, समाज, मानवीय और भावनात्मक दस्तावेज़ के रूप में दर्ज हुआ है. आयोजन उत्तर-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के प्रेक्षागृह में हुआ. [….]
हजारी प्रसाद द्विवेदी की लेखनी में परंपरा और आधुनिकता का जैसा मेल दिखाई देता है, वैसा कम ही देखने को मिलता है. लोक और शास्त्र का मूल्यांकन जिस इतिहास बोध से द्विवेदी जी ने किया है, वह इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि उसमें किसी तरह का महिमामण्डन या भाव विह्वल गौरव-गान नहीं मिलता, बल्कि वैज्ञानिक चेतनासंपन्न ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि मिलती है, जिसका पहला और आख़िरी लक्ष्य मनुष्य है. उनका यह निबंध इसी बात की ताईद करता है. [….]