हमारे पर्व, त्योहार परम्परा सिर्फ़ मनोरंजन, सामजिकता, इतिहास की स्मृति ही नहीं हैं, सदियों से हमारे शिल्प, गीत, नृत्य, चित्रकला को सजाने-संवारने और पीढ़ी दर पीढ़ी उनको आगे ले जाने का माध्यम भी रहे हैं. [….]
कोंच की रामलीला के बारे में बहुत कुछ पढ़ा-सुना था लेकिन जब नौकरी करने महोबा गया तो लोगों से वहां की रामलीला के ख़ूब चर्चे सुने. हालांकि महोबा में छह साल तक रहा मगर उस दौरान रामलीला पर कोई काम नहीं कर सका. इस बार केवल इसीलिए महोबा गया कि 135 साल पुरानी रामलीला के ऐतिहासिक सूत्रों की तलाश कर सकूं. [….]
हर पीढ़ी के पास अपने दौर के ज़ाइक़ों की ख़ास स्मृति होती है और विशिष्टता का यह बोध हमेशा साथ रहता है. ये स्मृतियां उस दौर की हैं, जब ‘ग्लोबल विलेज’ के बारे में दूर-दूर तक किसी को ख़बर नहीं थी. गांवों की चौहद्दी होती थी और दूसरा शहर परदेस समझा जाता था. ज़िंदगी में आज की तरह की हड़बड़ी भी दाख़िल नहीं हुई थी. यह उन्हीं दिनों की बात है. [….]
थिएटर की दुनिया के उस्ताद बंसी कौल से मुलाक़ात के कितने ही प्रसंग पिछले दिनों याद आते रहे. उनके हुनर का सम्मोहन दुनिया जानती है, क़रीब से जानने वाले उनकी शख़्सियत की तमाम ख़ूबियों से भी वाक़िफ़ होंगे. दिल्ली में हमारी मुलाक़ात और उनका यह जुमला कभी नहीं भूलता – रंग विदूषक की भाषा में कहें तो सत्ते पे सत्ता की दुनिया में कभी तीर-तुक्का भी लग जाता है. [….]
विज्ञान और विज्ञान पढ़ाने वालों को नीरस मानते हुए अक्सर कला-संस्कृति की दुनिया से अलग ही समझा जाता है. शिक्षण संस्थानों में यह भेद और साफ़ नज़र आता है, मगर इन दोनों दुनिया के बीच सामंजस्य की एक पहल ने न सिर्फ़ बंटवारे की रेखा धुंधली कर दी बल्कि विज्ञान पढ़ाने वालों की सांस्कृतिक प्रतिभा को देखने-समझने का मौक़ा भी दिया. [….]