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कितना है बद-नसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
– बहादुर शाह ‘ज़फ़र’
नींद भी क्या नेमत है जिसके लिए दुनिया में करोड़ों लोग तरसते हैं, लाखों लोग इलाज कराते-दवाइयाँ खाते हैं और जाने कितने हज़ार हैं जो रात-रात भर बिस्तर पर सर पटकते थक जाते हैं पर सो नहीं पाते. और फिर मिथकों में कुम्भकरण जैसे किरदार भी हैं, जो ब्रह्मा के श्राप से छह महीनों तक गहरी नींद में रहते थे. या फिर यूरोपीय मिथक में सम्राट स्टेफ़ेन और रानी [….]
कारा एंटोनेली की बनाई एनिमेटेड फ़िल्म ‘द क्लॉक टॉवर’ में एक ख़ूबसूरत बैलेरीना नर्तकी को श्राप देकर एक चुड़ैल एक घंटाघर की सबसे ऊपरी मंज़िल में क़ैद कर लेती है. वो घंटाघर एक मनोरम शहर के बीचोबीच खड़ा है जिसके चारों तरफ हरियाली, रंगीन फूलों की छटा और प्राकृतिक ख़ूबसरती बिखरी है. चुड़ैल बैलेरीना नर्तकी को यह कहकर फुसला लाती है कि अगर उसे [….]
मुझको मरे हुए 16 साल हो चले हैं, पैदा हुए 90 और तुझ से रुख़सत हुए क़रीब 77 साल जमा तीन महीने. अब सोच तेरी याद में दिन गिने के नहीं? पैदा हुआ मैं तेरी फ़िज़ाओं में और आख़िरी सांस ली दिल्ली के अशोक विहार इलाक़े में. पैदाइश और मौत के बीच और भी कई शहरों में पड़ाव रहे पर सब बेमानी रहे. तेरे से जुदा हो के दिल कहीं और लगा ही नहीं, दिल्ली [….]
रात दिवाली की है.गुडगाँव के जिस हिस्से में हम रहते हैं, वहां के बाशिंदो पे पटाख़े चलाने की कोई पाबन्दी लागू नहीं होती चाहे वो सरकार की हो, सुप्रीम कोर्ट की हो या गलाघोंटू प्रदूषण की हो. धमाके, शोर, आवाज़ें, धुआँ और अमावस के काले आसमान को भी चौंकाने वाली हवाइयों से फूटते रंगीन सितारे यक़ीनन लंका से लौटते राम को भी परेशान कर रहे होंगे. देवी [….]
अभी-अभी माँ के साथ सुबह की पहली चाय पी कर आया हूँ. अख़बार सामने रख वो बिना चश्मा पहने बहुत देर तक उसमे कुछ ढूंढती रहीं थी. उनकी नज़र न ख़बरों पे थी, न तस्वीरों पे, न ही अख़बार पे ही थी वो शायद कुछ और ही ढूंढ रही थी. टेबल के दूसरी तरफ़ वो मुझे बार-बार देख रही थीं कि मैं क्या देख रहा हूँ. झेँप कर मैं अपनी नज़र अपने सामने रखे अख़बार [….]
(माँ का होना इस क़ायनात की हर शै के लिए नेमत है. बढ़ती उम्र और समझ के साथ रिश्ता जताने वाला यह एक लफ़्ज़ और मानीख़ेज़ होता चला जाता है, ममत्व की छटाओं के रंग पहले से ज़्यादा साफ़ और चटख़ होते चले जाते हैं, ज़िंदगी की ख़ुशियों और ग़म में भी माँ का साथ होना किस क़िस्म का संबल, कैसी तसल्ली होती है, कौन नहीं जानता. राजिंदर जी का यह [….]
(माँ को केंद्र में रखकर राजिंदर अरोड़ा ने पिछले दिनों जो कुछ लिखा है, वह माज़ी का आईना है, वह हमारे समय और अतीत के बीच ऐसा सेतु भी रचता है, जिससे गुज़रते हुए हम ज़िंदगी की तमाम ख़ुशहाली, हालात से पैदा तल्ख़ियों को ज़्यादा क़रीब से देख-समझ पाते हैं और जो इनके बीच संतुलन बनाकर जीते जाने की कहानी भी है. पिछले कुछ [….]
मौसम आने से पहले उसकी भनक उतर आती है उसका मिजाज़ और तार्रुफ़ उसके आगे-आगे चला आता है. ये तार्रुफ़ दरवाज़ों और खिड़कियों से न आकर घर की दीवारों, सब्ज़ियों, फलों, बग़ीचे के फूलों, और मिट्टी की नमी से आता है. कभी-कभी मौसम चाँद से उतर के भी आ जाता है. मौसम उँगलियों के पोरों पे महसूस किया जाता है, सर्दियों में खाया और ओढ़ा जाता है [….]
सुबह की अधूरी नींद के आख़िरी लम्हे तकिये से कूद उनकी पलकों पे आ बैठते हैं. उनींदापन जीत जाता है और ढलकती पलकें धीरे-धीरे बंद होने लगती हैं. हाई ब्लड प्रेशर से आई सोज़िश की वज़ह से उनकी आँखों में कुछ महीनों से एक नई कशिश आ गई. आँखों के नीचे बन गई थैलियों में ज़िन्दगी के सारे तज़ुर्बे संभाल के रख दिए गए हैं. धूप की चमक में [….]
शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के बांग्ला उपन्यास ‘देबदास’ (1917) में पारो के किरदार का असली नाम पार्वती है. ये वो पार्वती है, जिसका प्यार परवान न चढ़ सका, उन चंद लम्हों के लिए भी नहीं, जब देवदास उसके घर के बाहर आख़िरी साँसें गिन रहा था. प्रेम और विरह के दर्द की अद्भुत कहानी तीन किरदारों की है – देवदास, उसके बचपन की दोस्त पारो [….]