प्रयागराज | विश्व रंगमंच दिवस के मौक़े पर आयोजित बैकस्टेज शब्द पर्व में नाट्य समीक्षक डॉ.अमितेश कुमार ने कहा, ‘रंगमंच हमेशा पहले से स्थापित सत्य से अलग राह पकड़ता है, इसलिए रंगमंच हमेशा नया होता जाता है. [….]
पितरस बुख़ारी यानी कि पेशावर वाले पीर सैयद अहमद शाह बुख़ारी तंज़-ओ-मिज़ाह की दुनिया का ऐसा नाम हैं, जिन पर उर्दू वाले नाज़ करते हैं. ऑल इंडिया रेडियो के तमाम ओहदों पर काम किया, लाहौर में गवर्नमेंट कॉलेज के प्रिंसिपल रहे, यूएन में पाकिस्तान की नुमांइदगी भी की मगर ज़माना उन्हें उनके मज़ामीन के लिए याद करता है. [….]
नई दिल्ली | कथाकार-आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के चर्चित उपन्यास ‘क़ब्ज़े ज़माँ’ का हिंदी अनुवाद छप गया है. राजकमल प्रकाशन से छपा यह उपन्यास एक सिपाही की आपबीती के बहाने वर्तमान से शुरू होकर गुज़रे दो ज़मानों का हाल इतने दिलचस्प अन्दाज़ में बयान करता है कि एक ही कहानी में तीन ज़मानों की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तस्वीर साफ़ उभर आती है. [….]
पंडित राधेश्याम कथावाचक की रंग यात्रा, उनकी शख़्सियत पर केंद्रित किताब ‘रंगायन’ 31 लेखों का संग्रह है. इसी महीने छपकर आई इस किताब में प्रेमचंद के लिखे ‘हिंदी रंगमंच और कथावाचक’, मधुरेश के ‘प्रेमचंद और राधेश्याम कथावाचक’, गोपीबल्लभ उपाध्याय के ‘राधेश्याम की नाट्य यात्रा’ और डॉ.हेतु भारद्वाज के लेख ‘जीवंत परंपरा के सूत्राधार राधेश्याम’ के साथ ही ख़ुद पंडित राधेश्याम के लिखे हुए तीन लेख भी शामिल हैं. [….]
कला | जे. स्वामीनाथन
“विचारधारा और कला का सम्बन्ध कभी नहीं होता, जैसा कुछ मार्क्सवादी लोग मानते हैं. लेनिन का पोर्ट्रेट बना देने से कला प्रगतिवादी नहीं हो जाती. देखा जाए तो एज़रा पाउंड की सहानुभूति फ़ासिस्ट के साथ थी, लेकिन उसे कोई कैसे कहेगा कि वह एक महान कलाकार नहीं था. स्वयं तालस्तोय कहाँ के प्रगतिवादी थे! [….]