बरेली | लॉरेंस फ़र्नांडिस को मुमकिन है कि आप न जानते हों मगर फ़र्न्स बेकरी से तो वाक़िफ़ होंगे. कभी एएससी के ऑफ़िसर्स मेस में बटलर रहे लॉरेंस ने 1963 में यह बेकरी शुरू की थी. उनके कुलनाम फ़र्नांडिस से ही इस बेकरी को अपना नाम मिला – फ़र्न्स. [….]
रियासत के दिनों में हरम में रहने वालों की ज़िंदगी बाहर से जितनी चकाचौंध भर लगती थी, क़रीब से देखने पर उनकी आत्मा उतनी ही उदास, ख़ामोश, बेबस और तारीकी में डूबी हुई मिलती. ‘द बेग़म एण्ड द दास्तान’ ताक़त और वैभव के ख़ौफ़ के बीच ख़ुद की ख़ुशियों-आकांक्षाओं को पीछे धकेलकर ज़िंदगी गुज़ार देने वालों की ख़ामोशी को ज़बान देती है. [….]
रामपुर में रज़ा लाइब्रेरी की अज़ीमुश्शान इमारत और किताबों के ख़ज़ाने के बीच किसी तारीक कोने में एक कतबा रहता है. क़यामगाह-ए-ग़ालिब की निशानी इस कतबे को झाड़-पोंछकर रोशनी में लाने पर जो पढ़ा जा सकता है, वह है – रामपुर में ग़ालिब का क़याम 1860 में रहा. 22 फ़रवरी 1944 को इसकी तारीख़ी अहमियत को महफ़ूज़ करने के लिए यह कतबा लगाया. [….]
अपनी ख़िताबी तस्वीर के बारे में बोलते हुए उस फोटोग्राफ़र को बाक़ी के लोग पूरी शाइस्तगी से सुनते रहे. पर मजाल है कि किसी ने उसे इस बात पर टोका हो कि पट्ठे ज़िंदगी में पहली बार जिस ख़ूंख़ार जानवर से मुठभेड़ पर तुम इतना इतरा रहे हो, वह चीता नहीं है. अपने मुल्क में तो चीते को आख़िरी बार सरगुजा के महाराज आरपी सिंह देव ने ही देखा था, वह भी 1948 में. वह साथी दरअसल तेंदुए के बारे में बात कर रहे थे. [….]